Saturday, June 26, 2010

नानी का पेट दर्द


एक समय की बात है। एक थी कहानी। नानी माँ के मन में रहती थी। नानी माँ रहती थी एक छोटे से घर में। घर एक पहाड़ी के ऊपर था। कितनी सुन्दर थी वो पहाड़ी। कोमल हरी घास, जैसे कालीन बिछा हो मखमली। छोटे छोटे गुलबहार के सफ़ेद फूल। मानो हरे कालीन में किसी ने हाथ से कडाई कर के प्यारे प्यारे सफ़ेद फूल बनाए हों।

नानी माँ रहती थीं अकेली। रोज़ सुबह उठतीं ठन्डे ठन्डे पानी से स्नान करतीं, एक लोटा पानी भर के, उगते सूरज की तरफ मुंह कर, आँगन में तुलसी को जल देतीं। फिर कहीं खाने पीने का ध्यान करतीं।
नानी माँ खुश थीं। लेकिन सिर्फ एक तकलीफ थी। रह रह कर उनके पेट में दर्द उठता था। डॉक्टर, हकीम, नानी माँ की वो सहेली जिनके पास हर मर्ज़ का घरेलू उपचार था; सभी को दिखाया लेकिन कोई फायेदा नहीं हुआ। नानी माँ ने अपने नेवल में हींग लगाई, सौंफ खाई, जीरे वाला पानी पिया - लेकिन कुछ फर्क नहीं पडा!
अब नानी माँ सब से यही कहतीं की ये दर्द तो अब मेरे साथ ही जाएगा। इसका और कुछ नहीं होने वाला। ऐसे ही रहने लगी नानी माँ।
फिर एक दिन की बात है। नानी माँ बहार आँगन में धीरे धीरे टहल रही थीं। पेट का दर्द हौले हौले बड़ रहा था। तभी उन्होंने एक गाडी की आवाज़ सुनी। देखा तो एक बड़ी सी मोटर कार आँगन में आ खड़ी हुयी। दरवाज़ा खुला और एक जाने पहचाने से मुख वाला पुरुष बाहर निकला। बोला, "मां"। नानी माँ हक्की बक्की रह गयीं। ये उनका बेटा था। आज पूरे दस साल बाद आया था। यूँ ही। अचानक। नानी मां बोलीं, "बेटा"। माँ और बेटा गले मिल कर रो पड़े। तभी नानी ने देखा गाडी में से दो और लोग उतर रहे हैं। बेटे ने कहा, "मां, ये तुम्हारी बहू है और ये तुम्हारा पोता"। नानी मां की तो ख़ुशी का ठिकाना ही ना था।
उन्होंने सबके लिए फटाफट नाश्ता बनाया, और परोसने लगी। लेकिन पेट दर्द तो था ही। बीच में ना चाहते हुए भी मुंह से आह निकल ही गयी। बेटे को बहुत चिंता हुयी। बोला, "मां हम कल ही डॉक्टर के पास जायेंगे"। नानी मां ने कहा, "मैंने सब कुछ आजमा लिया है। लेकिन कोई फायेदा नहीं। अब कल सोचेंगे। तुम आराम से खा लो। मैं अपने पोते को सुला देती हूँ"। नानी प्यार से अपने पोते को अपने कमरे में ले गयीं और अपने बिस्तर पे लिटा दिया। पोते ने कहानी की रट लगाई। कहानी तो नानी के मन में घर कर के बैठी ही थी। नानी ने झट से सूना दी। बस क्या था, जैसे ही नानी ने कहानी सुनायी, पेट दर्द हो गया छू मंतर!

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